Monday, January 15, 2007

एक गज़ल

मंज़िल है सामने मगर कम फ़ासला नहीं होता
बढें किस राह आगे यही फैसला नहीं होता

मक़सद नहीं सफर का, कुछ हमसफर तो हैं
करते क्या अकेले अगर काफ़िला नहीं होता

बुलंदियों पे इतनी किस्मत ले आई है हमें
अब और ऊंचा उठने का हौसला नहीं होता

मालिक तेरे जहां में कोई तुझ जैसा क्यों नहीं
सबके सिया़ह दामन कोई उजला नहीं होता

मुख़्तलिफ हैं कायदे इस राह-ए-इश्क के
सबको जो हों पता तो कोई दिलजला नही होता
(मुख़्तलिफ=अलग, जुदा, different)

3 Comments:

Anonymous Anonymous said...

mast likha hai yaar.....dil khush ho gaya.....keep up the gr8 work!!

5:03 PM, January 15, 2007  
Blogger Roopali said...

achchi likhi hai aapne bahut but still couldnt find what actually u r lookin for........

3:30 PM, January 18, 2007  
Blogger Unknown said...

wah Sapreji kya baat hai...but two doubts r thr..plz clear...kafila ka matlab nahi chamka...aur daman ke pehle kya shabd hai woh nahi chamaka...

2:49 PM, January 23, 2007  

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