गु़लाम अली खाँ
कुछ दिनों पहिले IIT के LAN पे गु़लाम अली खाँ साहब की ग़ज़लें मिल गईं। उनकी आवाज़ की कश़िश से तो हर कोई वाकिफ़ है ही। "हंगामा है क्यों बरपा" और "आवारगी" तो पहले ही सुनी हुईं थीं, कुछ ऐसी ग़ज़लें सुनी जो पहले नहीं सुनी थी। दो ऐसी ही ग़ज़लें लिख रहा हूँ जो शायद आपने भी ना सुनीं हो। यदि इन ग़ज़लों के शायर पता हों तो जरुर बताइये।
हमको किसके ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही
किसने तोङा दिल हमारा ये कहानी फिर सही दिल के लुटने का सब़ब पूछो न सबके सामने
नाम आएगा तुम्हारा ये कहानी फिर सही नफ़रतों के तीर खाकर दोस्तों के शहर में
हमने किस किस को पुकारा ये कहानी फिर सही क्या बताएँ प्यार की ब़ाज़ी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा ये कहानी फिर सही
२-
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
सिर्फ इक बार मुलाकात का मौका दे दे
मेरी मंज़िल है कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ
सुबह तक तुझसे बिछङकर मुझे जाना है कहाँ
सोचने के लिए एक रात का मौका दे दे
अपनी आँखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने
मेरी आँखों को भी बरसात का मौका दे दे
आज की रात मेरा दर्द-ए-मुहब्बत सुन ले
कंपकंपाते हुए ओठों की शिकायत सुन ले
आज इज़हारे-ए-ख़यालात का मौका दे दे
भूलना था तो ये इकरार किया ही क्यूँ था
बेवफ़ा तूने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था
सिर्फ दो चार सवालात का मौका दे दे
5 Comments:
आपका पहला पैराग्राफ फैल रहा है। जिससे यह पढ़ाई में नहीं आ रहा है। यह अक्सर इसलिये होता है जब आप justify करके लिखते हैं। इसे left align रख कर लिख कर देखें।
मैं तो Internet Explorer में देख रहा हूँ और ठीक दिख रहा है। फिर भी मैंने Left Align कर दिया है। अब सही दिखना चाहिऐ आपके Browser में।
बहुत बढिया! धन्यवाद!
Hi Sapre...bumped into your profile from Parle's blog. I had the pleasure of listening and meeting Ghulam Ali Khan Sahib last weekend. As expected had an amazing time
बढिया है जी :-)
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