Wednesday, November 30, 2005

राहें

एक दिन यूं ही, बैठै बैठै सोचा कि "राहें" शब्द पर कुछ लिखा जाए। थोङी बहुत माथापच्ची के बाद जब कविता बनी तो लगा कि कोई व्यक्ति अपने सारे कामधाम निपटा कर आराम से बैठकर अपनी जिंदगी को देख रहा है। आपको क्या लगता है?

राहें

वक्त ने बदला हमें कुछ, और कुछ सीखा हमने भी
शायद इसलिए नहीं अब बेजान लगती राहें

कंचे, लट्टू, पतंगें या क्रिकेट का वो खेल
ताज्जुब नहीं था भूल जाते थे तब हम घर की राहें

लौटना वापस शहर नाना के गांव से,
बहुत रुलाती थीं फिर हमें स्कूल की वो राहें

कुछ कर गुजरने का जुनूं और वो जोशीला ज़ज़्बा
एक कोशिश पर ही खुल जाती थीं तब हजारों राहें

ख्यालों में मुस्कुराना और बेवजह की चहलकदमी
सूनी थी शायद उनके घर से आने वाली राहें

अब देखता हूँ पीछे तो दिल में सुकून है
करती हैं बात मुझसे वो गुजरी हुई राहें

मंजिलें तो होती हैं एक रात के लिए
ताउम्र साथ निभाती हैं तो सिर्फ राहें

रखिए न रखिए इत्तिफाक आप हमारी राय से
होती हैं सबसे यादगार बस दिल की राहें