एक गज़ल
मंज़िल है सामने मगर कम फ़ासला नहीं होता
बढें किस राह आगे यही फैसला नहीं होता
मक़सद नहीं सफर का, कुछ हमसफर तो हैं
करते क्या अकेले अगर काफ़िला नहीं होता
बुलंदियों पे इतनी किस्मत ले आई है हमें
अब और ऊंचा उठने का हौसला नहीं होता
मालिक तेरे जहां में कोई तुझ जैसा क्यों नहीं
सबके सिया़ह दामन कोई उजला नहीं होता
मुख़्तलिफ हैं कायदे इस राह-ए-इश्क के
सबको जो हों पता तो कोई दिलजला नही होता
(मुख़्तलिफ=अलग, जुदा, different)